(डॉ. ओम प्रकाश जी के कलम से.......... ) वर्तमान समय में जीवन का योग में होना ही सुख शांति समृद्धि का परिचायक है। आज संपूर्ण विश्व में योग सिर चढ़कर बोल रहा है। भारत की प्राच्य विद्याओं में योग एक महत्वपूर्ण स्थान रखती है। आज योग को व्यक्तिगत साधना और अनुभवों से निकल कर सामूहिक व वैश्विक पहचान मिल रही है। 21 जून को अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस वैश्विक पर्व बन गया। एक एक व्यक्ति अपने फिटनेस का माध्यम योग को बनाने के लिए तत्पर है। लेकिन यह योग का आठवां हिस्सा मात्र है, जिसे आसन के नाम से लोग जानते हैं योगासन अर्थात "स्थिरम सुखम् आसनम्"। कुछ लोग इससे आगे बढ़कर प्राणायाम व ध्यान तक पहुंच जाते हैं, जिसे अष्टांग योग कहा जाता है। जिसमें यम,नियम आसन, प्रत्याहार, प्राणायाम, ध्यान धारणा और समाधि आठ अंग है। इन सब को मिलाकर संपूर्ण योग का स्वरूप बनता है।
योग का अर्थ है जोड़ना भारत के छह दर्शनों में एक है योग जिसे महर्षि पतंजलि ने रचा। वैसे योग की उत्पत्ति का मूल भगवान शिव को माना गया है शिव में आनंद,तांडव, नृत्य परमानंद और और कभी परम शांति के भाव प्रकट होते हैं यह जानने की अभिलाषा ही ऋषि-मुनियों को तपस्या से शिव को प्रसन्न कर जगत के कल्याण के लिए शिव की उस अनुभूति को जानने का प्रयास करते हैं। शिव के परम आनंद और शांति की अनुभूति ही योग दर्शन के रूप में प्रकट हुई है। महर्षि पतंजलि ने योग सूत्र के नाम से इसकी रचना की है। जिसमें 195 सूत्र हैं और हर सूत्र अपने आप में एक वृहद व्याख्या है।
योग का केंद्र चित्त को माना गया है। महर्षि पतंजलि ने योग को परिभाषित करते हुए कहा, "योग चित्तवृत्ति निग्रह:" अर्थात चित्त की वृत्तियों को यदि निग्रह यानी नियंत्रण में कर लिया गया तो जीवन की सारी समस्याओं का समाधान हो जाएगा। समसामयिक जीवन शैली में व्यक्ति अपनी लालसाओं की पूर्ति हेतु प्रयास करता है प्रयास में स्वार्थ, लालच, ईर्ष्या, क्रोध, अहंकार जैसी जानलेवा दुष्टप्रवृत्तियां ना हो तो प्रयास सफल हो जाता है।
भारत देश की 65% आबादी युवाओं की है। आज का दौर भी युवाओं का है। भारत दुनिया का सबसे बड़ा युवा देश है। युवा देश की सबसे बड़ी ताकत होते हैं। यदि वे कार्य कुशल हो तो कहना ही क्या है? देश की सरकार भी युवाओं के कौशल विकास पर बहुत जोर दे रही है। स्किल्ड डेवलपमेंट मंत्रालय की स्थापना का होना भी मील का पत्थर साबित हो रहा है। कहते भी है "योग कर्मशु कौशलम्", कुशलता पूर्वक अपने कार्यों का निष्पादन करना ही योग है। इसलिए युवाओं के फिटनेस से भी आगे बहुत जीवन उपयोगी है "योग", जो युवाओं के जीवन को, सोच को, व्यवहार को, पूर्ण कुशल या वेल स्किल्ड बनाता है।
जीवन की व्यूह रचना में मानसिक तनाव को मानसिक सुख में परिवर्तित करने का सबसे सरलतम मार्ग योग है।चूँकि जीवन का संपूर्ण आधार मन से ही है और योग से ही इस पर नियंत्रण पाया जा सकता है। चित्त संयमित और संतुलित होगा तो जीवन की सही दिशा और गति तय कर सकता है श्री कृष्ण ने गीता में कहा है।
योगस्थ: कुरु कर्माणि संग त्यत्वा धनंजय:,
सिद्धयहियो समोभूत्वा समत्वं योग उच्यते।
हे! धनंजय, आसक्ति को त्याग कर सफलता और विफलता की स्थिति में भी समान चित्त रख कर कर्मों को कर। यह समत्व भाव ही योग कहा जाता है।
गीता में विषादग्रस्त अर्जुन को जब कृष्ण मन को संयमित रख चिंतन करने की बात कहते हैं, तो अर्जुन समझ नहीं पाते कि इस वायु के वेग से भी तेज गति वाले मन को कैसे धामे। अर्जुन के यह पूछने पर श्रीकृष्ण कहते हैं,
"अभ्यासयोगमुक्तेन चेतसा जान्यगामिना,
परमं पुरूषं दिव्यं याति पार्थानुचिंतपन।"
हे! पार्थ, परमेश्वर के अभ्यास रूप योग से युक्त, अन्य तरफ ना जानेवाले यानी एकाग्र चित्त से निरंतर चिंतन करता हुआ पुरुष परम दिव्य रूप को प्राप्त होता है। अर्थात परमात्मा में लय हो जाता है।
योग से सामाजिक समरसता का मंत्र अर्थात मुझ में सब और सब में मैं यानी, "खलिवदं ब्रह्म:" का साक्षात्कार कराता है। तुलसीदास जी ने भी कहा है, "जड़ चेतन जल जीव नभ सकल राममय जान" जात-पात, धर्म,संप्रदाय से ऊपर उठकर मानव जीवन है। जोड़ना है तो गुण देखना ही पड़ेगा। जीवन के विकारों से बचने का साधन योग है।
शिक्षा में योग का होना,शिक्षा में संस्कार का आना है। मैं, मेरा परिवार मेरा समाज, राष्ट्र की परिकल्पना योगमय जीवन से संभव हो ही जाएगा। प्रतिदिन योग को दैनिकचर्या में लाना कठिन है, परंतु यह प्रतिदिन के कर्मों के करने का सरल माध्यम है। विडंबना है, आज भी बुद्धिजीवी वर्ग यह कहने से परहेज नहीं करता कि भारत में गर्व करने लायक है ही क्या? उनके अनुसार आज हम जिस तरक्की की राह पर बढ़ रहे हैं उसकी नींव तो अंग्रेजी शासन में रखी गई। जैसे ही पाश्चात्य देश विशेषकर अमेरिका सिर माथे रखता है तब हमें वह गर्व लगने लगता है। जिसे हम तिरस्कृत व हीन मानते थे।
आदि शंकराचार्य जब यात्रा के दौरान सामने चांडाल को देखकर बचने लगते हैं तो चांडाल तंज कसता है किस से बच रहा है?
तू भी ब्रह्म मैं भी ब्रह्म फिर कौन किस से बचे?
शंकराचार्य समझ जाते हैं कि असली ब्रह्म ज्ञान तो यह है और चांडाल का चरण पकड़ लिया। योग के अभ्यास से ही चित्त की ऐसी निर्मलता आती है और ब्रह्म ज्ञान मिलता है। जहां सारे भेद मिट जाते हैं और समाज के विराट रूप के दर्शन होते हैं। वास्तव में योग के माध्यम से ही अहम् से वयम् का भाव संपूर्ण वातावरण में पनपता है।
लेखक बी.एड. विभाग, राँची महिला महाविद्यालय, राँची में सहायक प्राध्यापक (अंग्रेजी) हैं।